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अ॒यं रो॑चयद॒रुचो॑ रुचा॒नो॒३॒॑यं वा॑सय॒द्व्यृ१॒॑तेन॑ पू॒र्वीः। अ॒यमी॑यत ऋत॒युग्भि॒रश्वैः॑ स्व॒र्विदा॒ नाभि॑ना चर्षणि॒प्राः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ rocayad aruco rucāno yaṁ vāsayad vy ṛtena pūrvīḥ | ayam īyata ṛtayugbhir aśvaiḥ svarvidā nābhinā carṣaṇiprāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। रो॒च॒य॒त्। अ॒रुचः॑। रु॒चा॒नः। अ॒यम्। वा॒स॒य॒त्। वि। ऋ॒तेन॑। पू॒र्वीः। अ॒यम्। ई॒य॒ते॒। ऋ॒त॒युक्ऽभिः॑। अश्वैः॑। स्वः॒ऽविदा॑। नाभि॑ना। च॒र्ष॒णि॒ऽप्राः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:39» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् जनो ! जैसे (अयम्) यह (अरुचः) प्रकाश से रहित चन्द्र आदिकों को (रुचानः) प्रकाशित करता हुआ सूर्य्य सम्पूर्ण जगत् को (रोचयत्) प्रकाशित करता है, वैसे विद्या से सब मनुष्यों को प्रकाशित करिये जैसे (अयम्) यह सूर्य्य (ऋतेन) जल के सदृश सत्य से (पूर्वीः) पहिले उत्पन्न हुए प्रजाओं को (वि, वासयत्) विशेष वसाता है, वैसे सम्पूर्ण प्रजाओं को सत्य विज्ञान से संयुक्त करिये और जैसे (अयम्) यह सूर्य्य (ऋतयुग्भिः) जल के युक्त करनेवालों से (अश्वैः) महान् शीघ्रगामी किरणों और (स्वर्विदा) सुखको जानते हैं जिससे उस (नाभिना) मध्य के आकर्षण आदि बन्धन से (चर्षणिप्राः) विद्या आदि गुणों से मनुष्यों के प्रति व्याप्त होनेवाला हुआ (ईयते) जाता है, वैसे सत्य के युक्त करानेवाले बड़े गुणों से सुख देनेवाले आत्मा के आकर्षण से और वक्तृत्व से श्रोताओं को व्याप्त होते हुए जहाँ तहाँ जाइये ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् जन सूर्य्य के सदृश प्रकाशात्मा होकर और अविद्या का विनाश कर मनुष्यों को विद्या से प्रकाशित करते हैं और सत्य आचरण के प्रति आकर्षित करते हैं, वे धन्य हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथाऽयमरुचो रुचानः सूर्य्यः सर्वं जगद्रोचयत्, तथा विद्यया सर्वान् मनुष्यान् प्रकाशयत। यथायं सवितर्त्तेन पूर्वीर्वि वासयत्तथा सकलाः प्रजा सत्येन विज्ञानेन संयोजयत, यथायं रविर्ऋतयुग्भिरश्वैः स्वर्विदा नाभिना चर्षणिप्राः सन्नीयते तथा सत्ययोजकैर्महद्भिर्गुणैः सुखप्रदानेनात्माऽऽकर्षणेन वक्तृत्वेन श्रोतॄन् व्याप्नुवन्तो यत्र तत्र गच्छत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (रोचयत्) प्रकाशयति (अरुचः) प्रकाशरहिताँश्चन्द्रादीन् (रुचानः) प्रकाशयन् (अयम्) (वासयत्) (वि) (ऋतेन) जलेनेव सत्येन (पूर्वीः) प्रागुत्पन्नाः प्रजाः (अयम्) (ईयते) गच्छति (ऋतयुग्भिः) जलस्य योजकैः (अश्वैः) महद्भिराशुगामिभिः किरणैः (स्वर्विदा) स्वः सुखं विदन्ति येन तेन (नाभिना) मध्याऽऽकर्षणादिबन्धनेन (चर्षणिप्राः) यो विद्यादिभिर्गुणैश्चर्षणीन् मनुष्यान् प्राति व्याप्नोति ॥४॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसः सूर्य्यवत्प्रकाशात्मानो भूत्वाऽविद्यां विनाश्य जनान् विद्यया प्रकाशयन्ति सत्याचरणं प्रत्याकर्षन्ति ते धन्याः सन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वान लोक सूर्याप्रमाणे प्रकाशात्मा बनून अविद्येचा नाश करून माणसांना विद्येने प्रकाशित करतात व सत्याचरणाकडे आकर्षित करतात ते धन्य होते. ॥ ४ ॥